2017 में गढ़चिरौली की सत्र अदालत ने प्रोफेसर गोकरकोंडा नागा (जी एन) साईबाबा समेत पांच लोगों को कथित माओवादी संबंधों और देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने जैसी गतिविधियों में शामिल होने के लिए दोषी ठहराया था। सरकार ने दावा किया था कि 2013 में साईबाबा के घर से जब्त किए गए इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में से कम से कम 247 पेज ‘आपराधिक’ पाए गए थे, मई 2014 में प्रो. जीएन साईबाबा को गिरफ्तार किया गया, तीन साल बाद इस पर मामला चला और अदालत ने नक्सली साहित्य – रखने और उसे बांटकर हिंसा फैलाने की कोशिश के आरोप में सजा सुनाई।
2022 में हाइकोर्ट ने गढ़चिरौली सत्र अदालत के उस फैसले को पलट दिया था। लेकिन तब हाई कोर्ट के फैसले के ख़िलाफ़राज्य ने तुरंत सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी। जिसके बाद अक्टूबर 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट के फ़ैसले पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था और मामले की दोबारा सुनवाई करने की बात कही थी। अब एक बार फिर हाईकोर्ट ने साईबाबा समेत सभी को आरोपों से मुक्त करने का ही फैसला सुनाया है।
बॉम्बे हाई कोर्ट की जस्टिस विनय जी. जोशी और जस्टिस वाल्मीकि एस. मेनेजेस की खंडपीठ ने माओवादियों से कथित संबंध के एक मामले में दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफ़ेसर 54 साल के जीएन साईबाचा को बरी कर दिया है। साईचाबा के साथ पत्रकार प्रशांत राही, महेश तिर्की, हेम केशवदत्त मिश्रा और विजय एन. तिकों भी अब सभी आरोपों से मुक्त कर दिए गए हैं। जबकि इसी मामले में छठे आरोपी पांडु नरोटे इस इंसाफको राह देखते हुए अगस्त 2022 में ही इस दुनिया से चले गए। उन्हें इतनी मोहलत भी नहीं मिली कि वे आजाद हवा में अपनी आखिरी सांस ले पाते।
2017 से जेल में बंद पांडु नरोटे बीमार हो गए थे, उन्हें इलाज की पूरी सुविधा नहीं मिली और कैद में ही उन्होंने दम तोड़ दिया। वैसे ही जैसे पादर स्टेन स्वामी अपने बुढ़ापे और बीमारी के साथ कैद की यातना भुगतते हुए इस दुनिया से रुखसत हो गए। राष्ट्रीय अपराध रिपोर्ट ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, पर्याप्त चिकित्सा उपचार की कमी के कारण हर साल करीब 2000 लोग जेल में जान गंवा देते हैं। इनमें कुछ दोषी भी होंगे, जो अपने अपराधों की सजा काट रहे होंगे, कुछ आरोपी होंगे जो इंसाफ के इंतजार में बैठे होंगे और कुछ उमर खालिद की तरह भी होंगे, जिनकी रिहाई तो दूर को बात, जमानत पर सुनवाई तक के लिए अदालत के पास वक्त नहीं है। हर कोई गुरमीत राम रहीम जैसा ताकतवर तो नहीं होता है, जो हत्या और बलात्कार का दोषी होने के बाद 4 साल की जेल में 9 बार पैरोल पर बाहर आ सके। हमारी न्याय व्यवस्था जजों की कमी से जूझते हुए शायद इतना अधिक थक गई है कि वह यही तय नहीं कर पाई है कि समाज के लिए गुरमीत राम रहीम जैसे लोग ज्यादा घातक हैं, जो आध्यात्म की आड़ में हत्या, बलात्कार जैसे गंभीर अपराध करते हैं, या फिर वो लोग जो सरकार के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत रखते हैं, जो व्यवस्था में बदलाव के लिए क्रांतिकारी विचार रखते हैं। इस मामले में इंसाफ नजर तो आ रहा है, लेकिन उसके साथ फिर वही पुराना सवाल चस्पां है कि क्या देर से मिले इस इंसाफ को इंसाफ कहा जा सकता है। न्यायालय को लंबी प्रक्रिया में दो साल तो इसी बात में गुजर गए कि साईबाबा को आरोपों से मुक्त करने का फैसला सही था या नहीं। इसलिए 2022 में अपने पक्ष में फैसला आने पर उन्हें बाहर आने के लिए दो साल इंतजार करना पड़ा। और उससे पहले 9 साल जो जेल में गुजारे वो अलग। 54 साल के साईबाबा व्हीलचेयर से चलते हैं और 99 प्रतिशत विकलांग हैं, जिन्हें श्री मोदी के प्रभाव में अपनाई गई शब्दावली के अनुसार दिव्यांग कहा जा सकता है। देश में दिव्यांगों के लिए जीवन सामान्य तौर पर भी नारकीय पौड़ा से भरा हुआ है, ऐसे में समझा जा सकता है कि जेल में 11 साल प्रो. साईबाबा ने किन कष्टों के साथ बिताए होंगे। जेल में उनके बिगड़ते स्वास्थ्य पर उनके परिजनों ने कई बार चिंता जाहिर की, सवाल उठाए, लेकिन न अदालत को, न सरकार को इन चिंताओं के बारे में सोचने की पुर्सत मिली। वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने बिल्कुल सही सवाल उठाए हैं कि ‘साईबाबा बरी कर दिए गए हैं, लेकिन कितने समय बाद? उनके स्वास्थ्य को जोनुकसान हुआ उसे कौन लौटाएगा? कोर्ट? शर्म करिए। कितने और लोगों को जमानत के लिए इंतजार करना होगा? लोगों की आजादी को जिस तरह खत्म किया गया, उस नुकसान की कीमत कौन चुकाएगा।’
ये गंभीर सवाल है, जिन पर न्यायपालिका को सोचना चाहिए। लेकिन जब न्यायपालिका में सियासत अपना असर दिखाने लगे तो क्या इन सवालों पर ईमानदारी से विचार होगा, यह एक बड़ी चिंता है। वो दौर शायद बीत गया है जब न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद ऐसे किसी भी पद को स्वीकार नहीं करते थे, जिससे उनके सेवाकाल के दौरान लिए गए फैसलों पर उंगली उठे। अब ऐसी आलोचनाओं से बेपरवाह होकर किसी राजनैतिक दल का हिस्सा बनने से भी गुरेज नहीं किया जा रहा। जस्टिस रंजन गोगोई राज्यसभा के सदस्य बन गए और अब कोलकाता हाईकोर्ट के जज के पद से इस्तीफा देकर जस्टिस अभिजीत गंगोपाध्याय ने भाजपा में शामिल होने का ऐलान कर दिया है। भाजपा के हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, उसकी कार्यशैली, या जिस भी वजह से प्रभावित होकर जस्टिस गंगोपाध्याय ने राजनीति में जाने का फैसला लिया है, इससे यह संदेह तो उपजेगा हो कि न्यायाधीश की आसंदी पर बैठकर उन्होंने जो फैसले राज्य सरकार से जुड़े मामलों में लिए होंगे, उनमें कितनी निष्पक्षता रही होगी।
इस देश के सबसे साधारण और गरीब लोगों के लिए उम्मीद का सबसे बड़ा ठिकाना अदालतें ही हुआ करती हैं, जहां वे इंसाफ के लिए पहुंचते हैं। लेकिन फैसलों पर दल विशेष की विचारधारा का प्रभाव या देर से किए गए न्याय के कारण लोकतंत्र का यह अहम स्तंभ भी दरक रहा है।