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लोकतंत्र के एक और स्तंभ में दरार

2017 में गढ़चिरौली की सत्र अदालत ने प्रोफेसर गोकरकोंडा नागा (जी एन) साईबाबा समेत पांच लोगों को कथित माओवादी संबंधों और देश के खिलाफ  युद्ध छेड़ने जैसी गतिविधियों में शामिल  होने के लिए दोषी ठहराया था। सरकार ने दावा किया था कि 2013 में साईबाबा के घर से जब्त किए गए इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में से कम से कम 247 पेज ‘आपराधिक’ पाए गए थे, मई 2014 में प्रो. जीएन साईबाबा को गिरफ्तार किया गया, तीन साल बाद इस पर मामला चला और अदालत ने नक्सली साहित्य – रखने और उसे बांटकर हिंसा फैलाने की कोशिश के आरोप में सजा सुनाई।

2022 में हाइकोर्ट ने गढ़चिरौली सत्र अदालत के उस फैसले को पलट दिया था। लेकिन तब हाई कोर्ट के फैसले के ख़िलाफ़राज्य ने तुरंत सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी। जिसके बाद अक्टूबर 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट के फ़ैसले पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था और मामले की दोबारा सुनवाई करने की बात कही थी। अब एक बार फिर हाईकोर्ट ने साईबाबा समेत सभी को आरोपों से मुक्त करने का ही फैसला सुनाया है।

बॉम्बे हाई कोर्ट की जस्टिस विनय जी. जोशी और जस्टिस वाल्मीकि एस. मेनेजेस की खंडपीठ ने माओवादियों से कथित संबंध के एक मामले में दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफ़ेसर 54 साल के जीएन साईबाचा को बरी कर दिया है। साईचाबा के साथ पत्रकार प्रशांत राही, महेश तिर्की, हेम केशवदत्त मिश्रा और विजय एन. तिकों भी अब सभी आरोपों से मुक्त कर दिए गए हैं। जबकि इसी मामले में छठे आरोपी पांडु नरोटे इस इंसाफको राह देखते हुए अगस्त 2022 में ही इस दुनिया से चले गए। उन्हें इतनी मोहलत भी नहीं मिली कि वे आजाद हवा में अपनी आखिरी सांस ले पाते।

2017 से जेल में बंद पांडु नरोटे बीमार हो गए थे, उन्हें इलाज की पूरी सुविधा नहीं मिली और कैद में ही उन्होंने दम तोड़ दिया। वैसे ही जैसे पादर स्टेन स्वामी अपने बुढ़ापे और बीमारी के साथ कैद की यातना भुगतते हुए इस दुनिया से रुखसत हो गए। राष्ट्रीय अपराध रिपोर्ट ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, पर्याप्त चिकित्सा उपचार की कमी के कारण हर साल करीब 2000 लोग जेल में जान गंवा देते हैं। इनमें कुछ दोषी भी होंगे, जो अपने अपराधों की सजा काट रहे होंगे, कुछ आरोपी होंगे जो इंसाफ के इंतजार में बैठे होंगे और कुछ उमर खालिद की तरह भी होंगे, जिनकी रिहाई तो दूर को बात, जमानत पर सुनवाई तक के लिए अदालत के पास वक्त नहीं है। हर कोई गुरमीत राम रहीम जैसा ताकतवर तो नहीं होता है, जो हत्या और बलात्कार का दोषी होने के बाद 4 साल की जेल में 9 बार पैरोल पर बाहर आ सके। हमारी न्याय व्यवस्था जजों की कमी से जूझते हुए शायद इतना अधिक थक गई है कि वह यही तय नहीं कर पाई है कि समाज के लिए गुरमीत राम रहीम जैसे लोग ज्यादा घातक हैं, जो आध्यात्म की आड़ में हत्या, बलात्कार जैसे गंभीर अपराध करते हैं, या फिर वो लोग जो सरकार के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत रखते हैं, जो व्यवस्था में बदलाव के लिए क्रांतिकारी विचार रखते हैं। इस मामले में इंसाफ नजर तो आ रहा है, लेकिन उसके साथ फिर वही पुराना सवाल चस्पां है कि क्या देर से मिले इस इंसाफ को इंसाफ कहा जा सकता है। न्यायालय को लंबी प्रक्रिया में दो साल तो इसी बात में गुजर गए कि साईबाबा को आरोपों से मुक्त करने का फैसला सही था या नहीं। इसलिए 2022 में अपने पक्ष में फैसला आने पर उन्हें बाहर आने के लिए दो साल इंतजार करना पड़ा। और उससे पहले 9 साल जो जेल में गुजारे वो अलग। 54 साल के साईबाबा व्हीलचेयर से चलते हैं और 99 प्रतिशत विकलांग हैं, जिन्हें श्री मोदी के प्रभाव में अपनाई गई शब्दावली के अनुसार दिव्यांग कहा जा सकता है। देश में दिव्यांगों के लिए जीवन सामान्य तौर पर भी नारकीय पौड़ा से भरा हुआ है, ऐसे में समझा जा सकता है कि जेल में 11 साल प्रो. साईबाबा ने किन कष्टों के साथ बिताए होंगे। जेल में उनके बिगड़ते स्वास्थ्य पर उनके परिजनों ने कई बार चिंता जाहिर की, सवाल उठाए, लेकिन न अदालत को, न सरकार को इन चिंताओं के बारे में सोचने की पुर्सत मिली। वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने बिल्कुल सही सवाल उठाए हैं कि ‘साईबाबा बरी कर दिए गए हैं, लेकिन कितने समय बाद? उनके स्वास्थ्य को जोनुकसान हुआ उसे कौन लौटाएगा? कोर्ट? शर्म करिए। कितने और लोगों को जमानत के लिए इंतजार करना होगा? लोगों की आजादी को जिस तरह खत्म किया गया, उस नुकसान की कीमत कौन चुकाएगा।’



ये गंभीर सवाल है, जिन पर न्यायपालिका को सोचना चाहिए। लेकिन जब न्यायपालिका में सियासत अपना असर दिखाने लगे तो क्या इन सवालों पर ईमानदारी से विचार होगा, यह एक बड़ी चिंता है। वो दौर शायद बीत गया है जब न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद ऐसे किसी भी पद को स्वीकार नहीं करते थे, जिससे उनके सेवाकाल के दौरान लिए गए फैसलों पर उंगली उठे। अब ऐसी आलोचनाओं से बेपरवाह होकर किसी राजनैतिक दल का हिस्सा बनने से भी गुरेज नहीं किया जा रहा। जस्टिस रंजन गोगोई राज्यसभा के सदस्य बन गए और अब कोलकाता हाईकोर्ट के जज के पद से इस्तीफा देकर जस्टिस अभिजीत गंगोपाध्याय ने भाजपा में शामिल होने का ऐलान कर दिया है। भाजपा के हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, उसकी कार्यशैली, या जिस भी वजह से प्रभावित होकर जस्टिस गंगोपाध्याय ने राजनीति में जाने का फैसला लिया है, इससे यह संदेह तो उपजेगा हो कि न्यायाधीश की आसंदी पर बैठकर उन्होंने जो फैसले राज्य सरकार से जुड़े मामलों में लिए होंगे, उनमें कितनी निष्पक्षता रही होगी।

इस देश के सबसे साधारण और गरीब लोगों के लिए उम्मीद का सबसे बड़ा ठिकाना अदालतें ही हुआ करती हैं, जहां वे इंसाफ के लिए पहुंचते हैं। लेकिन फैसलों पर दल विशेष की विचारधारा का प्रभाव या देर से किए गए न्याय के कारण लोकतंत्र का यह अहम स्तंभ भी दरक रहा है।

 
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Posted by on March 8, 2024 in Uncategorized

 

मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा 75 वर्ष की हो गई.

10 दिसंबर 2023 को दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण वैश्विक प्रतिज्ञाओं में से एक: मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा  (यूडीएचआर) की 75वीं वर्षगांठ है। यह ऐतिहासिक दस्तावेज़ उन अपरिहार्य अधिकारों को स्थापित करता है जिनका एक इंसान के रूप में हर कोई हकदार है – जाति, रंग, धर्म, लिंग, भाषा, राजनीतिक या अन्य राय, राष्ट्रीय या सामाजिक मूल, संपत्ति, जन्म या अन्य स्थिति की परवाह किए बिना।

यह घोषणापत्र 10 दिसंबर 1948 को पेरिस में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा घोषित किया गया था और इसमें पहली बार मौलिक मानवाधिकारों को सार्वभौमिक रूप से संरक्षित करने का प्रावधान किया गया था।  

500 से अधिक भाषाओं में उपलब्ध, यह दुनिया में सबसे अधिक अनुवादित दस्तावेज़ है।

सार्वभौमिकता, प्रगति और जुड़ाव पर ध्यान केंद्रित करने वाली एक साल की पहल दिसंबर 2023 में एक उच्च-स्तरीय कार्यक्रम में समाप्त होगी, जो मानव अधिकारों के भविष्य के दृष्टिकोण के लिए वैश्विक प्रतिज्ञाओं और विचारों की घोषणा करेगी।

सार्वभौमिक घोषणा आम मूल्यों और दृष्टिकोणों का रास्ता दिखाती है जो तनाव को हल करने में मदद कर सकती है और उस सुरक्षा और स्थिरता का निर्माण कर सकती है जो हमारी दुनिया चाहती है।"

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस

2023 थीम: सभी के लिए स्वतंत्रता, समानता और न्याय

1948 में मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा (यूडीएचआर) को अपनाने के बाद के दशकों में   , मानव अधिकारों को दुनिया भर में अधिक मान्यता प्राप्त और अधिक गारंटी प्राप्त हुई है। यूडीएचआर ने तब से मानवाधिकार संरक्षण की एक विस्तारित प्रणाली की नींव के रूप में कार्य किया है जो आज विकलांग व्यक्तियों, स्वदेशी लोगों और प्रवासियों जैसे कमजोर समूहों पर भी ध्यान केंद्रित करता है।

हालाँकि, यूडीएचआर के अधिकारों में गरिमा और समानता के वादे पर हाल के वर्षों में लगातार हमले हो रहे हैं। चूँकि दुनिया नई और चल रही चुनौतियों का सामना कर रही है – महामारी, संघर्ष, बढ़ती असमानताएँ, नैतिक रूप से दिवालिया वैश्विक वित्तीय प्रणाली, नस्लवाद, जलवायु परिवर्तन – यूडीएचआर में निहित मूल्य और अधिकार हमारे सामूहिक कार्यों के लिए दिशानिर्देश प्रदान करते हैं जो किसी को भी पीछे नहीं छोड़ते हैं।

साल भर चलने वाली मानवाधिकार 75 पहल यूडीएचआर की सार्वभौमिकता और उससे जुड़ी सक्रियता के अधिक से अधिक ज्ञान की ओर समझ और कार्रवाई की सुई को स्थानांतरित करने का प्रयास करती है।

यूडीएचआर सभी मनुष्यों के अधिकारों को सुनिश्चित करता है।

शिक्षा के अधिकार से लेकर समान वेतन तक, यूडीएचआर ने पहली बार समस्त मानवता के अविभाज्य और अविभाज्य अधिकारों की स्थापना की।

“सभी लोगों और सभी देशों के लिए उपलब्धि के सामान्य मानक” के रूप में, यूडीएचआर अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और स्थानीय कानूनों और नीतियों के लिए एक वैश्विक खाका है और सतत विकास के लिए 2030 एजेंडा का आधार है।

सतत विकास के लिए 2030 का एजेंडा स्पष्ट रूप से मानता है कि यह यूडीएचआर पर आधारित है और इसे इस तरह से लागू किया जाना चाहिए जिससे मानव अधिकारों का एहसास हो।

यूडीएचआर ने मजबूत मानवाधिकार संरक्षण के लिए कई संघर्षों को प्रेरित किया है और उन्हें अधिक मान्यता प्राप्त करने में मदद की है।

यूडीएचआर की घोषणा के बाद से (लगभग) 75 वर्षों में, मानवाधिकार आगे बढ़े हैं। हालाँकि, प्रगति का मतलब यह नहीं है कि अधिकारों और समानता की लड़ाई कभी ख़त्म हो जाएगी। 

जब भी और जहां भी मानवता के मूल्यों को त्याग दिया जाता है, हम सभी अधिक खतरे में होते हैं। आज के सबसे बड़े संकटों का समाधान मानवाधिकारों में निहित है।

अधिकारों का उल्लंघन सीमाओं और पीढ़ियों के पार होता रहता है। इन्हें सामूहिक रूप से दूर किया जा सकता है, होना ही चाहिए।

हमें अपने और दूसरों के अधिकारों के लिए खड़े होने की जरूरत है।

यूडीएचआर हर किसी से मानवाधिकारों के लिए खड़े होने का आह्वान करता है। हम सभी को एक भूमिका निभानी है।

हमें ऐसी अर्थव्यवस्था की ज़रूरत है जो मानवाधिकारों में निवेश करे और सभी के लिए काम करे।

हमें सरकारों और उनके लोगों के बीच और समाज के भीतर सामाजिक अनुबंध को नवीनीकृत करने की आवश्यकता है, ताकि विश्वास का पुनर्निर्माण किया जा सके और न्यायसंगत और टिकाऊ विकास की राह पर मानवाधिकारों की एक साझा और व्यापक दृष्टि को अपनाया जा सके।

 
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Posted by on December 10, 2023 in Uncategorized

 

स्वच्छ भारत मिशन: सफाई की दिशा में एक प्रयास

स्वच्छ भारत मिशन, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में शुरू किया, एक बड़ा प्रयास है जो भारत को स्वच्छता और स्वच्छता की दिशा में बढ़ावा देने के लिए किया गया है। यह मिशन लोगों को साफ और स्वस्थ जीवनशैली की ओर प्रोत्साहित करने का उद्देश्य रखता है और समृद्धि की दिशा में कदम बढ़ाना है।

मुख्य लक्ष्य:
स्वच्छ भारत मिशन का मुख्य लक्ष्य भारत को गंदगी से मुक्त बनाना है। इसके तहत, सार्वजनिक स्थानों, गाँवों, और शहरों में साफ-सुथरे स्थिति को बनाए रखने के लिए विभिन्न कार्रवाईयाँ की जाती हैं।

मुख्य पहलू:
1. शौचालय निर्माण:
स्वच्छ भारत मिशन ने लोगों को शौचालय बनाने के लिए प्रेरित किया है, ताकि हर घर में स्वच्छता का पूरा ध्यान रहे।

2. कचरा प्रबंधन:
सृजनात्मक कचरा प्रबंधन के लिए उपायों को बढ़ावा देते हुए साफ सड़कें और आसपास की स्थिति को सुनिश्चित करने के लिए कई पहलुओं पर काम किया गया है।

3. जन जागरूकता:
लोगों को स्वच्छता के महत्व के बारे में जागरूक करने के लिए जन सामूहिकता कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।

4. नगर स्वच्छता रैंकिंग:
नगरों को स्वच्छता में रैंकिंग देने के लिए एक प्रतिस्पर्धा प्रणाली की गई है, जो उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है।

सकारात्मक परिणाम:
स्वच्छ भारत मिशन के परिणामस्वरूप, बहुत से स्थानों में साफता की दृष्टि में सुधार हुआ है। यह लोगों की स्वच्छता और स्वस्थता में जागरूकता बढ़ा रहा है और एक स्वच्छ भविष्य की दिशा में कदम बढ़ा रहा है।

निरीक्षण और सुधार:
मिशन की सफलता के लिए, सुधार के लिए नियमित निरीक्षण और उन्नति प्रक्रिया आवश्यक है। समाज को सशक्त बनाने के लिए साथ में चलते हुए, स्वच्छ भारत मिशन एक सुधारक और समृद्धि की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है।

 
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Posted by on December 9, 2023 in Uncategorized

 

विश्व पर्यावरण दिवस 2023: प्लास्टिक प्रदूषण के विरुद्ध वैश्विक पहल

प्रत्येक वर्ष 5 जून की तारीख को ‘‘विश्व पर्यावरण दिवस’’ के रूप में मनाया जाता है. आज औद्योगीकरण के इस दौर ने पर्यावरण के लिहाज से भयानक रूप ले लिया है, हर दिन पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और बढ़ते प्रदूषण के कारण हमारा इकोसिस्‍टम बड़ी तेजी से नकारात्मक बदलवों का सामना कर रहा है. इसी नुकसान के मद्देनजर पर्यावरण को सुरक्षा देने के संकल्प लेने के मकसद से हर साल 5 जून को ‘‘विश्व पर्यावरण दिवस’’ मनाया जाता है. बता दें कि ये खास दिवस 143 से अधिक देशों को एक मंच पर लाकर समुद्री प्रदूषण, ओवरपॉपुलेशन, ग्लोबल वॉर्मिंग, सस्टनेबल कंजम्पशन और वाइल्ड लाइफ क्राइम जैसे पर्यावरणीय मुद्दों पर जागरूकता बढ़ाता है.

साल 1973 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने पर्यावरण का बिगड़ता संतुलन और बढ़ते प्रदूषण से जूझ रही दुनिया को समस्या से उबारने के लिए और पर्यावरण को हरा भरा बनाने के लिए, साथ ही विश्‍व पर्यावरण सुरक्षा को लेकर जागरूकता फैलाने के लिए ‘विश्‍व पर्यावरण दिवस’ मनाने की शुरुआत की थी, जिसके बाद हर साल नई और अलग थीम के साथ 5 जून का दिन ‘‘‘विश्व पर्यावरण दिवस’’’ के रूप में मनाया जाता है. गौरतलब है कि ‘‘विश्व पर्यावरण दिवस’’ की स्थापना 1972 में ह्यूमन एनवायरनमेंट पर स्टॉकहोम सम्मेलन में की गई थी, जिसे संयुक्त राष्ट्र द्वारा किया गया था. सयुक्त राष्ट्र महासभा के द्वारा आयोजित इस विश्व पर्यावरण सम्मलेन में UNEP ( संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ) की नीव रखी गयी थी. सम्मेलन में करीब 119 देश शरीक हुए थे, इसके बाद से ही दुनियाभर में 5 जून को विश्‍व पर्यावरण दिवस मनाया जाने लगा.

‘‘‘विश्व पर्यावरण दिवस’’’ को हर साल नए थीम के साथ मनाया जाता है. साल 1974 में इसे ‘ऑनली वन अर्थ’ थीम के साथ मनाया गया था. इस वर्ष ‘‘विश्व पर्यावरण दिवस’’ 2023 की थीम “Solutions to Plastic Pollution” यानि प्लास्टिक प्रदूषण के समाधान पर आधारित है.

‘‘विश्व पर्यावरण दिवस’’ 2023 का मूल उद्देश्य दुनियाभर में लोगों के बीच पर्यावरण से जुड़े मुद्दे जैसे ब्लैक होल इफेक्ट, ग्रीन हाउस के प्रभाव, जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग आदि मुद्दों पर जागरूक करना है. साथ ही पर्यावरण की रक्षा के लिए लोगों को प्रेरित करना है. विश्व पर्यावरण दिवस 2023 की थीम #BeatPlasticPollution ये याद दिलाता है कि प्लास्टिक प्रदूषण पर लोगों की कार्रवाई मायने रखती है. अब समय आ गया है कि इस कार्रवाई में तेजी लाई जाए और सर्कुलर इकॉनमी में परिवर्तन किया जाए. मानव जीवन को बनाए रखने के लिए यह भागीरथी प्रयास विश्व समुदाय के प्रत्येक मानव के प्रयास से ही संभव है. उम्मीद है कि हम समय रहते सजग हो और पृथ्वी पर जीवन बचाने के लिए ग्लोबल वार्मिग ओर जलवायु परिवर्तन के प्रति लोगो को जागरूक कर प्लास्टिक प्रदूषण को न्यूनतम स्तर तक ले जाने के लिए प्रभावी कदम उठाने में अपना योगदान दें.

 
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Posted by on June 2, 2023 in Uncategorized

 

होमी भाभा की मौत परमाणु कार्यक्रम रोकने की साज़िश या हादसा थी?- विवेचना

23 जनवरी, 1966 को होमी भाभा सारे दिन टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफ़आर) के अपने दफ़्तर की चौथी मंज़िल पर काम करते रहे.

उनके सहयोगी रहे एमजीके मेनन ने याद किया, “उस दिन भाभा ने मुझसे करीब दो घंटे तक बात की. उन्होंने मुझे बताया कि उनके पास इंदिरा गांधी का फ़ोन आया था जो चार दिन पहले ही प्रधानमंत्री बनीं थीं. उन्होंने भाभा से कहा था कि मैं चाहती हूँ कि आप विज्ञान और तकनीक के हर मामले में मेरी सहायता करें. अगर उन्होंने वो ज़िम्मेदारी स्वीकार कर ली होती तो उन्हें मुंबई से दिल्ली शिफ़्ट होना पड़ता. भाभा ने मुझे बताया कि उन्होंने इंदिरा गांधी की पेशकश स्वीकार कर ली है. उन्होंने मुझसे कहा कि वियना से वापस आने के बाद मैं तुम्हें टीआईएफ़आर का निदेशक बनाने का प्रस्ताव काउंसिल के सामने रखूँगा.”

भाभा के भाई जमशेद, माँ मेहरबाई, जेआरडी टाटा, मित्र पिप्सी वाडिया और उनके दाँतों के डॉक्टर फ़ाली मेहता को भी इंदिरा गांधी की इस पेशकश की जानकारी थी.

हाल ही में प्रकाशित होमी भाभा की जीवनी ‘होमी भाभा अ लाइफ़’ के लेखक बख़्तियार के दादाभौय लिखते हैं, “भाभा ने मेनन को साफ़-साफ़ तो ये नहीं बताया कि इंदिरा गांधी ने उनके सामने क्या पेशकश की थी लेकिन मेनन का अंदाज़ा था कि इंदिरा ने उन्हें अपने कैबिनेट में मंत्री का पद ऑफ़र किया था.”

भाभा का विमान पहाड़ से टकराया

24 जनवरी, 1966 को भाभा वियना जाने के लिए एयर इंडिया की फ़्लाइट 101 पर सवार हुए थे. उस ज़माने में बंबई से वियना की सीधी फ़्लाइट नहीं हुआ करती थी और लोगों को जिनेवा में फ़्लाइट बदल कर वियना जाना पड़ता था. भाभा ने एक दिन पहले जिनेवा जाने वाली फ़्लाइट की बुकिंग कराई थी लेकिन किन्हीं कारणों से उन्होंने अपनी यात्रा एक दिन के लिए स्थगित कर दी थी.

24 जनवरी को एयर इंडिया का बोइंग 707 विमान ‘कंचनजंघा’ सुबह 7 बजकर 2 मिनट पर 4807 मीटर की ऊँचाई पर मोब्लां पहाड़ियों से टकरा कर दुर्घटनाग्रस्त हो गया.

ये विमान दिल्ली, बेरूत और जिनेवा होते हुए लंदन जा रहा था. इस क्रैश में सभी 106 यात्री और 11 विमानकर्मी मारे गए थे. कंचनजंघा लगभग उसी स्थान पर क्रैश हुआ था, जहाँ नवंबर, 1950 में एयर इंडिया का एक और विमान ‘मलाबार प्रिंसेज़’ क्रैश हुआ था.

‘मलाबार प्रिसेज़’ और ‘कंजनजंघा’ दोनों विमानों का मलबा और उस पर सवार लोगों के शव कभी नहीं मिल पाए. उस विमान का ब्लैक बॉक्स भी नहीं मिल पाया था. ख़राब मौसम के कारण विमान का मलबा खोजने का काम रोक देना पड़ा था.

फ़्रेंच जाँच समिति ने सितंबर, 1966 में फिर से अपनी जाँच शुरू की थी और मार्च 1967 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में उसने कहा था, “पहाड़ पर भारी बर्फ़बारी और पायलट और एयर ट्रैफ़िक कंट्रोलर के बीच ग़लतफ़हमी के कारण ये दुर्घटना हुई थी. विमान के कमांडर ने मोब्लां से अपने विमान की दूरी का ग़लत अंदाज़ा लगाया था. विमान का एक रिसीवर भी काम नहीं कर रहा था.”

भारतीय परमाणु कार्यक्रम के पितामह

सिर्फ़ 56 साल की उम्र में होमी भाभा ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया था. उन्हें कॉस्मिक किरणों पर काम करने के लिए याद किया जाता है जिसकी वजह से उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था, लेकिन भाभा का असली योगदान भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम और टाटा इंस्टीटयूट की स्थापना करने में था.

भाभा की अचानक मौत ने पूरे भारत को सदमे में डाल दिया था. उस समय के सबसे बड़े उद्योगपति जेआरडी टाटा के लिए ये एक दोहरा झटका था. उनके साले गणेश बर्टोली एयर इंडिया के यूरोप के क्षेत्रीय निदेशक थे, वे भी इसी विमान में यात्रा कर रहे थे.

विमान पर सवार होने से दो दिन पहले भाभा ने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के सम्मान में हुई शोकसभा की अध्यक्षता की थी. कहा जाता है कि लाल बहादुर शास्त्री ने भी भाभा को अपने कैबिनेट में शामिल करने का प्रस्ताव किया था लेकिन तब भाभा ने राजनीतिक पद की बजाए वैज्ञानिक काम करते रहने का फ़ैसला किया था.

भाभा की मौत में सीआईए का हाथ?

सन 2017 में एक स्विस पर्वतारोही डेनियल रोश को आल्प्स पहाड़ों पर एक विमान का मलबा मिला था जिसके बारे में कहा गया था कि ये उसी विमान का मलबा था जिसमें होमी भाभा सफ़र कर रहे थे.

इस दुर्घटना से संबंधित साज़िश की अटकलें इसमें अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए का हाथ बताती हैं. वर्ष 2008 में एक पुस्तक ‘कन्वरसेशन विद द क्रो’ में पूर्व सीआईए अधिकारी रॉबर्ट क्रॉली और पत्रकार ग्रेगरी डगलस के बीच एक कथित बातचीत प्रकाशित हुई थी जिससे लोगों को आभास मिला कि इस दुर्घटना में सीआईए का हाथ था.

सीआईए में क्रॉली को ‘क्रो’ के नाम से जाना जाता था और सीआईए में उन्होंने अपना पूरा करियर वहाँ के योजना निदेशालय में बिताया था जिसे ‘डिपार्टमेंट ऑफ़ डर्टी ट्रिक्स’ भी कहा जाता था.

अक्तूबर, 2000 में अपनी मृत्यु से पहले क्रॉली की डगलस से कई बार बातचीत हुई थी. उसने डगलस को दस्तावेज़ों से भरे दो बक्से भेजे थे और निर्देश दिए थे कि उन्हें उनकी मौत के बाद खोला जाए.

पाँच जुलाई, 1996 को हुई बातचीत में डगलस ने क्रॉली को कहते बताया था, “साठ के दशक में हमारी भारत से मुश्किलें शुरू हो गईं थीं जब उसने परमाणु बम पर काम करना शुरू कर दिया था. वो दिखाने की कोशिश कर रहे थे कि वो कितने चालाक हैं और जल्द ही वो दुनिया की एक बड़ी ताकत बनने जा रहे हैं. दूसरी चीज़ ये थी कि वो सोवियत संघ के कुछ ज़्यादा ही नज़दीक जा रहे थे.”

इसी पुस्तक में क्रो ने भाभा के बारे में कहा था, “वो भारत के परमाणु कार्यक्रम के जनक हैं और वो परमाणु बम बनाने में पूरी तरह सक्षम थे. भाभा को कई बार इस बारे में सचेत किया गया था लेकिन उन्होंने उस ओर ध्यान नहीं दिया था. भाभा ने ये स्पष्ट कर दिया था कि दुनिया की कोई भी ताकत उन्हें और भारत को दूसरी परमाणु शक्तियों के बराबर आने से नहीं रोक सकती. वो हमारे लिए एक ख़तरा बन गए थे. वो एक हवाई दुर्घटना में मारे गए थे जब उनके बोइंग 707 के कार्गो होल्ड में रखा बम फट गया था.”

भाभा के साथ 116 लोग मारे गए

किताब के अनुसार क्रॉली ने ये भी शेख़ी बघारी थी कि वो वियना के ऊपर जहाज़ में विस्फोट करना चाहते थे लेकिन फिर ये तय किया गया कि ऊँचे पहाड़ों पर विस्फोट से कम नुक्सान होगा. मैं समझता हूँ कि एक बड़े शहर पर बड़े जहाज़ के गिरने से कम नुक़सान उसके पहाड़ों पर गिरने से होगा. एजेंसी के अंदर क्रॉली सोवियत खुफ़िया एजेंसी केजीबी के विशेषज्ञ माने जाते थे.

इस किताब में उनको ये कहते हुए भी बताया गया है, “वास्तव में शास्त्री भारत का परमाणु कार्यक्रम शुरू करना चाहते थे इसलिए हमने उनसे भी छुटकारा पाया. भाभा चूँकि जीनियस थे और उनमें परमाणु बम बनवाने की क्षमता थी, इसलिए हमने इन दोनों से पिंड छुड़ा लिया. भाभा के बाद भारत भी शांत हो गया.”

भाभा के जीवनीकार बख़्तियार के दादाभौय लिखते हैं, “भाभा की मौत इटली के तेल व्यापारी एनरिको मैटी की तरह थी. उन्होंने इटली के पहले परमाणु रियेक्टर का काम शुरू करवाया था और कथित रूप से सीआईए ने उनके प्राइवेट जहाज़ में तोड़फोड़ करवा कर उन्हें मरवा दिया था. इन चौंकाने वाले दावों की पुष्टि कभी नहीं हो पाई. संभव है कि इसकी सच्चाई कभी सामने नहीं आ पाएगी. ग्रेगरी डगलस को ज़्यादा-से-ज़्यादा एक अविश्वसनीय स्रोत ही माना जा सकता है. अमेरिकी भले ही ये न चाहते हो कि भारत परमाणु बम बनाए लेकिन एक शख्स को मारने के लिए 117 लोगों को मरवाना समझ के परे है.”

परमाणु बम के मुद्दे पर भाभा और शास्त्री में मतभेद

24 अक्तूबर, 1964 को होमी भाभा ने आकाशवाणी पर परमाणु निरस्त्रीकरण पर बोलते हुए कहा था, “पचास परमाणु बमों का ज़ख़ीरा बनाने में सिर्फ़ 10 करोड़ रुपयों का ख़र्च आएगा और दो मेगाटन के 50 बनाने का ख़र्च 15 करोड़ से ज़्यादा नहीं होगा. बहुत से देशों के सैनिक बजट को देखते हुए ये ख़र्च बहुत मामूली है.”

नेहरू के उत्तराधिकारी लाल बहादुर शास्त्री पक्के गांधीवादी थे और परमाणु हथियारों के प्रति उनका विरोध जगज़ाहिर था. तब तक नेहरू से अपनी नज़दीकी के कारण परमाणु नीति पर भाभा की ही चलती आई थी लेकिन शास्त्री के आते ही हालात बदल गए.

बख़्तियार दादाभौय लिखते हैं, “भाभा इस बात से बहुत परेशान हुए कि वो अब प्रधानमंत्री के कार्यालय में बिना अप्वाइंटमेंट लिए नहीं घुस सकते थे. शास्त्री को वो सब समझने में दिक्कत हो रही थी जो भाभा उन्हें समझाना चाह रहे थे. चीन के परमाणु परीक्षण से पहले आठ अक्तूबर 1964 को भाभा ने लंदन में घोषणा कर दी थी कि भारत सरकार के फ़ैसला लेने के 18 महीनों के अंदर परमाणु बम का परीक्षण कर सकता है.

इस पर लाल बहादुर शास्त्री ने टिप्पणी करते हुए कहा था, “परमाणु प्रबंधन को सख़्त आदेश हैं कि वो कोई ऐसा प्रयोग न करे जो परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण इस्तेमाल के ख़िलाफ़ हो.”

भाभा ने शास्त्री को मनाया

इसके कुछ दिनों के अंदर ही भाभा ने शास्त्री को परमाणु शक्ति के शांतिपूर्ण इस्तेमाल के लिए मना लिया था.

जाने-माने परमाणु वैज्ञानिक राजा रमन्ना ने इंदिरा चौधरी को दिए गए इंटरव्यू में स्वीकार किया था, “हमारे बीच इस पर चर्चा नहीं होती थी कि हम बम बनाएँ या नहीं. हमारे लिए ये ज़्यादा महत्वपूर्ण था कि हम इसे कैसे बनाएँ ? हमारे लिए ये एक आत्मसम्मान की बात थी. ‘डेटेरेंस’ का सवाल तो बहुत बाद में आया. भारतीय वैज्ञानिक के रूप में हम अपने पश्चिमी समकक्षों को दिखाना चाहते थे कि हम भी ये कर सकते हैं.”

ये देखते हुए कि अमेरिका से इस मामले में कोई मदद नहीं मिलेगी, भाभा ने अप्रैल, 1965 में ‘न्यूक्लियर एक्सप्लोज़न फॉर पीसफ़ुल परपसेज़’ के लिए एक छोटा दल बनाया जिसका प्रमुख उन्होंने राजा रमन्ना को बना दिया.

बख़्तियार दादाभौय लिखते हैं, “दिसंबर 1965 में लाल बहादुर शास्त्री ने भाभा से शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु विस्फोट के काम को तेज़ी देने के लिए कहा. होमी सेठना तो यहाँ तक कहते हैं कि पाकिस्तान के साथ 1965 के युद्ध के दौरान शास्त्री ने भाभा से कुछ ख़ास करने के लिए कहा. भाभा ने कहा कि इस दिशा में काम हो रहा है. इस पर शास्त्री ने कहा आप अपना काम जारी रखिए लेकिन कैबिनेट की मंज़ूरी के बिना कोई प्रयोग मत करिएगा.”

पखवाड़े के भीतर शास्त्री और भाभा दोनों की मौत

11 जनवरी, 1966 को लालबहादुर शास्त्री की अचानक ताशकंद में मौत हो गई. उनकी उत्तराधिकारी इंदिरा गाँधी को भाभा की सेवाएँ लेने का बहुत अधिक मौका नहीं मिला क्योंकि उनके शपथ लेते ही 24 जनवरी को भाभा का हवाई दुर्घटना में निधन हो गया.

एक पखवाड़े के अंदर शास्त्री और भाभा दोनों का निधन हो गया. सरकार के किसी दूसरे व्यक्ति को इस बात की जानकारी नहीं थी कि शास्त्री और भाभा के बीच किन मुद्दों पर बात हो रही है क्योंकि परमाणु बम से संबंधित फ़ैसलों को फ़ाइल पर नहीं लिया जाता था. भाभा के निधन ने भारत की परमाणु नीति के निर्माण में बहुत बड़ा शून्य पैदा कर दिया था.

होमी भाभा के भाई जमशेद भाभा ने इंदिरा चौधरी को दिए इंटरव्यू में कहा था कि उनकी माँ इस बात को कभी नहीं पचा पाईं कि भाभा ने उस जहाज़ से यात्रा नहीं की जिससे वो पहले जाने वाले थे.

दादाभौय लिखते हैं, “आरएम लाला ने मुझे बताया था कि भाभा ने पिप्सी वाडिया की वजह से अपना जाना स्थगित किया था जो कि उनकी महिला मित्र थीं. भाभा की माँ मेहरबाई ने इसका इतना बुरा माना था कि उन्होंने ताउम्र पिप्सी को माफ़ नहीं किया. ये आम चीज़ नहीं है कि किसी वैज्ञानिक की मौत को प्रधानमंत्री के शपथग्रहण समारोह पर तरजीह दी जाए. लेकिन भाभा के साथ ऐसा ही हुआ. जिस दिन इंदिरा गाँधी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, भाभा का हवाई दुर्घटना में देहांत हुआ. अगले दिन सभी अख़बारों ने उसे अपनी मुख्य ख़बर बनाया.”

युवा वैज्ञानिकों की पूरी जमात तैयार की

25 अगस्त को टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च में भाभा के सम्मान में शोक सभा हुई. भाभा ने अपने जीवित रहते ही किसी बड़े शख्स की मौत पर छुट्टी देने की प्रथा पर रोक लगा दी थी क्योंकि उनका मानना था कि किसी व्यक्ति की मौत पर उसको सबसे बड़ी श्रद्धांजलि काम रोक कर नहीं बल्कि अधिक काम कर दी जाती है.

भाभा की मौत पर उनके पालतू कुत्ते क्यूपिड ने पहले तो खाना छोड़ दिया और कुछ दिनों बाद ही अपने मालिक के वियोग में उसकी मौत हो गई.

एमजीके मेनन का मानना था कि भाभा का देहांत उनके करियर की शिखर पर हुआ था और वो उन गिने-चुने लोगों में से एक थे जो अपने जीवनकाल में ही लीजेंड बन गए थे.

इंदिरा गाँधी ने अपने शोक संदेश में कहा था, “हमारे परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के महत्वपूर्ण चरण में होमी भाभा को खो देना हमारे देश के लिए बहुत बड़ा धक्का है. उनके बहुआयामी दिमाग और जीवन के कई पहलुओं में उनकी रुचि और देश में विज्ञान को बढ़ावा देने की उनकी प्रतिबद्धता को कभी भुलाया नहीं जाएगा.”

उनको श्रद्धाँजलि देते हुए जेआरडी टाटा ने कहा था, “होमी भाभा उन तीन महान हस्तियों में से एक हैं जिन्हें मुझे इस दुनिया में जानने का सौभाग्य मिला है. इनमें से एक थे जवाहरलाल नेहरू, दूसरे थे महात्मा गांधी और तीसरे थे होमी भाभा. होमी न सिर्फ़ एक महान गणितज्ञ और वैज्ञानिक थे बल्कि एक महान इंजीनयर और निर्माता भी थे. इसके अलावा वो एक कलाकार भी थे. जितने लोगों को मैंने जाना है और उनमें वो दो लोग भी शामिल हैं जिनका ज़िक्र मैंने किया है, उनमें होमी अकेले शख़्स हैं जिन्हें ‘कम्पलीट मैन’ कहा जा सकता है.”

जब पूरा हुआ भाभा का सपना


भाभा की मौत के बाद विक्रम साराभाई को परमाणु ऊर्जा आयोग का अध्यक्ष बनाया गया था. लेकिन वो पहले व्यक्ति नहीं थे जिनको ये पद ऑफ़र किया गया हो.

एस चंद्रशेखर की जीवनी बताती है, “भाभा के देहांत के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने ये पद मशहूर वैज्ञानिक एस. चंद्रशेखर को देने की पेशकश की थी लेकिन उन्हें ये अंदाज़ा नहीं था कि चंद्रशेखर अमेरिकी नागरिक हैं. जब चंद्रशेखर नवंबर, 1968 में दूसरा नेहरू स्मारक भाषण देने आए तो उन्होंने प्रधानमंत्री से मुलाकात करने की इच्छा प्रकट की. उस मुलाकात में उन्होंने इंदिरा गाँधी को स्पष्ट किया कि उनके पास भारत की नागरिकता नहीं है. तब जाकर ये पद विक्रम साराभाई को दिया गया.”

विक्रम साराभाई परमाणु हथियार और शांतिपूर्ण परमाणु परीक्षण कार्यक्रम के ख़िलाफ़ थे. साराभाई ने परमाणु कार्यक्रम विकसित करने की नैतिकता और उपयोगिता पर सवाल उठाए और उस पूरी परियोजना को पलटने के लिए ज़ोर लगा दिया जिसके भाभा सबसे बड़े पैरोकार थे.

साराभाई ने तत्कालीन कैबिनेट सचिव धरमवीरा से कहा था, “भाभा का उत्तराधिकारी बनना इतना आसान नहीं है. इसका मतलब मात्र उनका पद लेना नहीं है बल्कि उनकी विचारधारा को आत्मसात भी करना है.”

साराभाई को होमी सेठना के विरोध का भी सामना करना पड़ा जो अपने को भाभा का स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानते थे और इस पद को पाने के लिए उन्होंने एड़ी चोटी को ज़ोर लगा दिया था.

विक्रम साराभाई का भी बहुत कम उम्र में देहांत हो गया था. अतत: होमी भाभा का परमाणु विस्फोट करने का सपना राजा रमन्ना और होमी सेठना ने मई, 1974 में पूरा किया था.

 
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Posted by on May 19, 2023 in Uncategorized

 

भविष्य में ऊर्जा का प्रमुख स्रोत बन सकती है अजैविक मीथेन

पृथ्वी के भीतर पेट्रोलियम उत्पाद, कोयला और प्राकृतिक गैस जैसे हाइड्रोकार्बन ईंधनों का भंडार हैं। ये सभी जीवाश्म ईंधन हैं, जो पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं और समुद्री जीवों के अवशेषों के करोड़ों वर्षों तक धरती अथवा महासागरों के नीचे दबे रहने के फलस्वरूप बने हैं। जीवाश्मों के इन रूपों को जैविक ईंधन कहा जाता है। जबकि, कुछ हाइड्रोकार्बन, विशेष रूप से मीथेन, पृथ्वी के भीतर गहराई में जैविक और अजैविक दोनों प्रक्रियाओं से बनते हैं। पृथ्वी की सबसे ऊपरी सतह के नीचे मीथेन का अपार भंडार है। मीथेन रंगहीन तथा गंधहीन गैस है, जो प्राकृतिक गैस का मुख्य घटक है।

अमेरिका के डीप कार्बन ऑब्जर्वेटरी (डीसीओ) के वैज्ञानिकों ने दुनिया के बीस से अधिक देशों और कई गहरे महासागरीय क्षेत्रों में मीथेन के अजैविक उत्पत्ति स्त्रोतों का पता लगाया है। वैज्ञानिकों के अनुसार, कुछ विशेष चट्टानों में पाए जाने वाले ओलिविन नामक खनिज और पानी आपस में क्रिया करके हाइड्रोजन गैस बनाते हैं। यह हाइड्रोजन कार्बन स्त्रोतों, जैसे- कार्बनडाइऑक्साइड से क्रिया करके मीथेन बनाती है। वैज्ञानिक इसी को अजैविक मीथेन कहते हैं क्योंकि यह बिना किसी जैविक आधार के निर्मित होती है।

अध्ययन में यह भी पता चला है कि कुछ विशिष्ट सूक्ष्मजीव वास्तव में अजैविक मीथेन बनाने में मदद करते हैं। पृथ्वी में बहुत अधिक गहराई में मिलने वाले मीथोनोजेन नामक ये सूक्ष्मजीव भू-रासायनिक क्रियाओं के दौरान बनने वाली हाइड्रोजन का उपयोग करके अपशिष्ट के रूप में मीथेन गैस का उत्सर्जन करते हैं। मीथेन ईंधन के रूप में उपयोग की जाती है। यह गैस धरती में पड़ी दरारों से निकलती है।

डीसीओ के वैज्ञानिकों ने लगभग तीन अरब वर्ष पहले महाद्वीपों के कोर में बनी चट्टानों, समुद्र तल में मध्य-महासागरीय चोटियों, ज्वालामुखियों की निकटवर्ती उच्च तापमान वाली जलतापीय नलिकाओं और विभिन्न महाद्वीपों के कई बेहद खारे झरनों और जलकुंडों में अजैविक मीथेन की उपस्थिति का पता लगाया है। इन स्थानों में तुर्की की प्रसिद्ध फ्लेम्स ऑफ काइमिरा, ओमान के सीमेल ओफियोलाइट, कनाडा की गहरी खदानें और मध्य अटलांटिक महासागर में लॉस्ट सिटी जलतापीय क्षेत्र शामिल हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार, ” कुछ विशेष चट्टानों में पाए जाने वाले ओलिविन नामक खनिज और पानी आपस में क्रिया करके हाइड्रोजन गैस बनाते हैं। यह हाइड्रोजन कार्बन स्त्रोतों, जैसे- कार्बनडाइऑक्साइड से क्रिया करके मीथेन बनाती है। वैज्ञानिक इसी को अजैविक मीथेन कहते हैं क्योंकि यह बिना किसी जैविक आधार के निर्मित होती है। “

डीसीओ एक हजार से अधिक वैज्ञानिकों का समुदाय है जो पृथ्वी पर कार्बन की मात्रा, गति, रूप और उत्पत्ति को समझने में जुटा है। इस समूह के वैज्ञानिकों ने वर्ष 2009 में डीप एनर्जी कम्युनिटी नामक परियोजना शुरू की थी, जिसके तहत दुनिया के 35 देशों के 230 से अधिक शोधकर्ता काम कर रहे हैं।

शोधकर्ताओं ने दुनियाभर से मीथेन के नमूने एकत्र किए हैं। कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी और मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों ने मास स्पेक्ट्रोमेट्री, अवशोषण स्पेक्ट्रोस्कोपी तथा अत्याधुनिक संवेदी उपकरणों की मदद से जैविक और अजैविक मीथेन गैस के रासायनिक घटकों का विश्लेषण किया है। विभिन्न आइसोटोपों से पता चला कि धरती में मीथेन कैसे बनती है।

इस शोध से जुड़ी फ्रांस की क्लाउड बर्नार्ड यूनिवर्सिटी की वैज्ञानिक इसाबेल डैनियल का कहना है कि पृथ्वी पर अजैविक मीथेन की मौजूदगी की पुष्टि हो गई है। यह जटिल प्रक्रिया है, जिसमें सबसे बड़ी भूमिका चट्टानों में बनने वाली हाइड्रोजन की होती है।

परियोजना में शामिल यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के प्रमुख वैज्ञानिक एडवर्ड यंग के अनुसार, “अगर बेहतर ढंग से समझ आ जाए कि चट्टानों में हाइड्रोजन कैसे बनती है और मीथेन उसमें कैसे शामिल हो जाती है तो वैज्ञानिक यह जानने के करीब होंगे कि पृथ्वी पर कितनी अजैविक मीथेन मौजूद है।”

पृथ्वी पर अजैविक मीथेन के स्रोतों को निर्धारित करने के लिए उपयोग होने वाली तकनीकें और इससे जुड़े अध्ययन सौरमंडल के दूसरे ग्रहों, विशेष तौर पर मंगल के वातावरण में हुई मीथेन की खोज और वहां जीवन की संभावना का पता लगाने में मददगार हो सकते हैं।

अजैविक मीथेन की खोज की दिशा में किए जा रहे शोधों से प्राकृतिक ऊर्जा संबंधी सोच में बदलाव हो रहे हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि अजैविक मीथेन भविष्य में ऊर्जा का प्रमुख स्रोत बनकर उभर सकती है और अजैविक मीथेन का आर्थिक मूल्य निश्चित रूप से बहुत अधिक हो सकता है।

 
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Posted by on May 17, 2023 in Uncategorized

 

कैलकुलस के वास्तविक खोजकर्ता कौन : न्यूटन, लैब्नीज़ या भारतीय गणितज्ञ

कैलकुलस के वास्तविक खोजकर्ता कौन थे? न्यूटन या भारतीय गणितज्ञ?

गणित की एक महत्वपूर्ण शाखा है – कैलकुलस या कलन. गणित की इस शाखा में चर राशियों के सूक्ष्म परिवर्तन का अध्ययन किया जाता है. कैलकुलस के दो भाग है – अवकलन ( डिफरेंशियल कैलकुलस) तथा समाकलन (इंटीग्रल कैलकुलस). विज्ञान, इंजीनियरिंग, अर्थशात्र आदि के सिद्धांतों की व्युत्पत्ति तथा अनुप्रयोगों में कैलकुलस का उपयोग होता है. आधुनिक विज्ञान, इंजीनियरिंग, अर्थशास्त्र की प्रगति कैलकुलस के बिना असंभव है. छात्रों को यह पढ़ाया जाता है कि कैलकुलस की खोज सत्रहवीं शताब्दी की शुरुआत में अंग्रेज गणितज्ञ सर आइज़क न्यूटन तथा जर्मन गणितज्ञ लैब्नीज़ ने की थी . इन दोनों को कैलकुलस का पिता माना जाता है.

लेकिन भारत में कैलकुलस का उपयोग हिन्दू गणितज्ञों द्वारा छठवीं शताब्दी से ही किये जाने के प्रमाण मिलते है. दसवीं शताब्दी तक भारत के गणितज्ञों में कैलकुलस का प्रयोग व्यापक था. फिर सत्रहवीं शताब्दी के न्यूटन तथा लैब्नीज़ कैलकुलस के जनक कैसे हो गए? इस लेख में हम एक महत्वपूर्ण प्रश्न – ‘कैलकुलस के वास्तविक खोजकर्ता कौन थे? न्यूटन, लैब्नीज़ या भारतीय गणितज्ञ’ का उत्तर खोजने का प्रयास करेंगे.
सर आइज़क न्यूटन (1642 –1727) एक प्रसिद्ध अंग्रेज वैज्ञानिक एवं गणितज्ञ था. इन्होने 1680 में कैलकुलस सम्बन्धी अपनी खोज प्रकाशित की. इस पुस्तक का नाम था – ‘methods of flexions’ जिसमे कैलकुलस के सिद्धांतों को प्रथम बार बताने का दावा किया जाता है. लैब्नीज़ (1646- 1716), जिसका पूरा नाम -Gottfried Wilhelm von Leibniz था, एक जर्मन गणितज्ञ था. इसे भी कैलकुलस का स्वतंत्र खोजकर्ता माना गया है. लैब्नीज़ की कैलकुलस सम्बन्धी प्रमेय प्रथम बार एक जर्नल Acta Eruditorum में 1684 में प्रकाशित हुई.

यद्यपि न्यूटन और लैब्नीज़ खुद को स्वतंत्र खोजी बता कर एक दूसरे पर अपनी कैलकुलस चुराने का आरोप लगाते रहे और लैब्नीज़ की मृत्यु तक दोनों इस बात को ले कर झगड़ते रहे, जबकि दोनों जानते थे कि यह भारतीय ज्ञान उन्होंने इटली के गणितज्ञों से प्राप्त किया है.

किन्तु यह ज्ञान इटली के गणितज्ञों को कैसे प्राप्त हुआ?

इटली का एक समुद्री व्यापारी व जहाजी मार्को पोलो सन 1295 में भारत आया. मार्को पोलो ने लगभग एक वर्ष तमिलनाडु और केरल में बिताया. वह भारत से अनेक मूर्तियां और संस्कृत भाषा की अनेक पुस्तकें इटली ले गया था.

इटली के वेनिस शहर में एक म्यूज़ियम है. इसमें मार्को पोलो के द्वारा भारत से लायी गयी अनेक कलाकृतियां और पेंटिंग है. साथ ही मार्को पोलो द्वारा बनवाई गयी पेंटिंग भी है. जो भी यूरोप टूर पर जाते हैं उन्हें वेनिस में यह संग्रहालय अवश्य दिखाया जाता है. इस संग्रहालय के कक्ष क्रमांक 12 से 15 तक रोमन शैली की प्राचीन पेंटिंग्स लगायी गयी है. एक स्थान पर मार्को पोलो की पेंटिंग्स स्थापित हैं. जिसमें दिखाया गया है कि भारत के बंदरगाह और शहर अत्याधिक समृद्ध हैं.
एक पेंटिंग में मार्को पोलो रोम के सम्राट को एक पुस्तक भेंट कर रहा है. इस चित्र के नीचे लगी काष्ठ पट्टिका में लिखा है – “Marcopolo presenta libro indiano sul calcolo di Sacro Romano Imperatore Enrico VII” अर्थात मार्को पोलो रोमन सम्राट हेनरी – सप्तम को भारत से लायी गयी कैलकुलस की पुस्तक भेंट दे रहा है. इससे यह भी पता चलता है कि उन दिनों यूरोप के सम्राटों में भारत के ज्ञान की कितनी अधिक प्रतिष्ठा थी. इसी संग्रहालय में एक अन्य पेंटिंग्स के बगल में लगी पट्टिका पर लिखा है – “Del Sacro Romano Impero Ferdinando I che dà il libro di calcolo indiano a Bonaventura Francesco Cavalieri 1634” अर्थात – रोमन सम्राट ferdinando- प्रथम भारतीय कैलकुलस की पुस्तक Bonaventura Francesco Cavalieri को दे रहें है सन 1634.

इटली के गणितज्ञ और ज्योतिषी बोनात्ति (Guido Bonatti of forli), जिनकी मृत्यु 1300 में हुई, ने अपनी पुस्तक में मार्को पोलो द्वारा भारत से लायी हुई गणित की पुस्तको का वर्णन किया है. वेनिस के एक अन्य गणितज्ञ Niccolò Fontana Tartaglia (1499 –1557) की पुस्तक ‘Nova Scientia’ जो 1556 में प्रकाशित हुई में लिखा है “a mio avviso il libro indiano di flussioni è grande classica in matematica che dimostra altamente intellettuali di Archimede e le opere di Euclide, che ho tradotto in italiano.”

अर्थात – ‘in my view the Indian book of fluxions is great classical in mathematics which shows highly intellectuals than Archimedes and Euclid’s works which I translated in Italian.’ (मेरे विचार से fluxion की भारतीय पुस्तक गणित का एक महान शास्त्रीय ग्रंथ है जिसमे आर्कमडीज और युक्लिड से भी अत्यधिक बुद्धिमत्ता प्रकट होती है, जिसे मैंने अनुवादित किया है). ध्यान दें कि यहाँ कैलकुलस की जगह fluxion शब्द का प्रयोग किया गया है.
कावालिरी Bonaventura Francesco Cavalieri (in Latin, Cavalerius) (1598 –1647) जिसे रोमन सम्राट ferdinando- प्रथम ने भारतीय कैलकुलस की पुस्तक भेंट की, एक उच्च कोटि का गणितज्ञ था. इसने रेखागणित, प्रकाश, गति, लोगरिथम पर कार्य किया. कावालिरी के गणित के कार्य का अध्ययन न्यूटन, पास्कल, मैकलौरन आदि ने किया. यहीं से कैलकुलस का ज्ञान अंग्रेजो को मिला.

इटली का एक अन्य गणितज्ञ था बिगोलो Leonardo Pisano Bigollo (c. 1170 – c. 1250) जिसे फिबोनासी (Fibonacci) के नाम से जाना जाता है. यह रोमन सम्राट फ्रेडेरिक द्वितीय का कृपापात्र था. सम्राट ने इसे गणित का ज्ञान प्राप्त करने हेतु अरब व भारत भेजा था. सन 1240 में गणित पर प्रकाशित इसकी पुस्तक का मुखप्रष्ठ देखिये – मुखपृष्ठ पर फिबोनासी एक ब्राह्मण गुरु से गणित का ज्ञान प्राप्त कर रहा है. फिबोनासी का भारतीय गणित गुरु संभवतः भास्कराचार्य द्वितीय थे, जिन्होंने ब्रह्मगुप्त के गणितीय सिद्धांतों को फिबोनांसी को पढाया था.

👉फिबोनासी की इस पुस्तक के मुखपृष्ठ के चित्र को वृहद (enlarge) करके देखने पर –(नीचे चित्र है)

स्पष्ट है कि प्राचीन समय में रोमन विद्यार्थी भारत से ही गणित का ज्ञान प्राप्त करते थे.
भारतीय गणितज्ञ और कैलकुलस : सूर्य चन्द्र का ग्रहण काल निकलने में वराह मिहिर (505–587 CE) ने कुछ सूत्रों का प्रयोग किया जो कैलकुलस के हैं, लेकिन उन्होंने कैलकुलस को पृथक शाखा नहीं माना था. भारतीय गणितज्ञ मंजुला (932 AD) ने स्पष्ट रूप से कैलकुलस का प्रयोग किया. मंजुला ने कैलकुलस के अनेक सूत्र प्रतिपादित किये – उनके अनुसार sin w’ – sin w = (w’ – w) cos w, जबकि (w’ – w) अति सूक्ष्म हो. एवं δu = δv ± e cos θ δ θ. भास्कराचार्य-II (1114–1185) को मंजुला के सूत्रों का ज्ञान था, वे सिद्धांत शिरोमणि में लिखते हैं – δ (sin θ) = cos θ δ θ.

भारतीय ज्योतिष में ग्रहों की तात्कालिक गति व सूक्ष्मगति की गणना सम्बन्धी समस्या को हल करने के लिए कैलकुलस का उपयोग भास्कराचार्य-II ने किया. ग्रहों की काल गणनाओं, तात्कालिक गति व सूक्ष्मगति निकालने वाले अध्याय को ‘काल-कोलाष‘ नाम दिया गया है. संभवतः यही ‘काल-कोलाष’ अंग्रेजों का ‘कैलकुलस’ बना. भास्कराचार्य ने derivative के लिए ‘फ़लाक्ष’ शब्द का प्रयोग किया.

वे लिखते हैं – “ज्या का फ़लाक्ष कोज्या होता है”. Means d sinx/dx = cos x
“किसी राशि की द्विघात का फ़लाक्ष उस राशि के द्विगुण होता है”. Means d x2/dx = 2x
भारतीय गणितज्ञ derivative के स्थान पर फलाक्ष शब्द का उपयोग सन 1150 AD से कर रहे है. यह भी देखने वाली बात है कि न्यूटन ने भी अपनी पुस्तक में derivative के स्थान पर FLUXION (फलाक्ष) शब्द का उपयोग 1680 AD में किया था. यद्यपि भास्कराचार्य ने क्षेत्रफल निकालने हेतु इंटीग्रल कैलकुलस का उपयोग भी किया था लेकिन वह बड़ी प्रारंभिक अवस्था में था.

सन 1300 से 1632 तक केरल का गणित अत्यंत उच्च अवस्था में था जिसे Kerala school of astronomy and mathematics कहा जाता है. जिसमे परमेश्वर, नीलकंठ सोमयाजी, ज्येष्ठ देव, अच्युत पिशारती, मेलपथुर नारायण भट्टाथिरी, अच्युत पणिक्कर जैसे अनेक महान गणितज्ञ हुए. इन्होने कैलकुलस व अनंत श्रेणी को सम्पूर्ण ऊंचाइयों तक पहुचाया. अंग्रेज गणितज्ञ विश whish लिखता है – ‘केरल गणित में fluxion के तरीकों की पूर्ण प्रणाली विकसित कर ली गयी और अनंत श्रेणी के सिद्धांत जो प्राप्त हुए वे दुनिया के किसी देश में नहीं पाए जाते. भारतीय गणितज्ञ माधव के कार्य से न्यूटन और लैब्नीज़ को प्रेरणा मिली.’ भारत के केरल के महान गणितज्ञ माधव ने चौदहवीं शताब्दी में कैलकुलस के कई महत्वपूर्ण अवयवों की चर्चा की. उन्होने टेलर श्रेणी, अनन्त श्रेणियों का सन्निकटीकरण (infinite series approximations), अभिसरण (कन्वर्जेंस) का इन्टीग्रल टेस्ट, अवकलन का आरम्भिक रूप, अरैखिक समीकरणों के हल का पुनरावर्ती (इटरेटिव) हल, यह विचार कि किसी वक्र का क्षेत्रफल उसका समाकलन होता है, आदि विचार (संकल्पनाएं) उन्होने न्यूटन के जन्म से 200 साल पहले लिख दिया.

एक फ़्रांसिसी मिशनरी फादर Jordanus Catalani 1320 में भारत आया. ये भारत का प्रथम बिशप था. ये गुजरात, केरल, मंगलोर और ठाणे में रहा. इसने गणित, विज्ञान, धातुकर्म, पशु चिकित्सा के अनेक भारतीय ग्रंथों का अनुवाद किया और फ़्रांस ले गया. Jordanus ने एक पुस्तक लिखी जिसका अंग्रेजी शीर्षक है वंडर्स ऑफ़ द ईस्ट. इस पुस्तक में वे लिखते हैं – “पंडितों ने ब्रह्माण्ड की आयु ट्रिलियन वर्ष निकाल रखी है. ये लोग ज़ीरो और दशमलव पद्धति का उपयोग करते हैं. इनको ज्यामिती, ट्रिगनॉमेट्री, कैलकुलस और खगोलीय गणनाओं का पूर्ण ज्ञान है. ये लोग मानते है कि पृथ्वी पर इंसानी सभ्यता का अस्तित्व भी ट्रिलियन वर्ष से है. पंडित सटीक खगोलीय गणना करते हैं और सूर्य केन्द्रित सौर प्रणाली मानते है तथा ग्रहों उपग्रहों की कक्षा अंडाकार मानते हैं. ये लोग precession of the equinoxes की गणना करते हैं.” भारत आये जेसुइट पादरियों ने भी कैलकुलस की पुस्तकों का अनुवाद किया और यूरोप ले गए.
सारांश – भारतीय गणितज्ञ 6वीं शताब्दी से ही कैलकुलस का उपयोग कर रहे थे. सन 1300 में केरल में गणित घराना अत्यंत विकसित था. जिन्होंने डिफरेंशियल और इंटीग्रल कैलकुलस के सभी प्रमेय व सूत्र खोज लिए थे, जिसे फलाक्ष कहा जाता था. भारतीय गणित की बहुत सारी पुस्तकों का अनुवाद पादरियों द्वारा इटालियन (रोमन) भाषा में हुआ, जिसे मार्को पोलो इटली ले गया. इटली के गणितज्ञों से कैलकुलस न्यूटन और लिब्नीज के पास पंहुचा.

Special thanks to Arvind Kumar( Nalanda )

👉नीचे का चित्र प्रख्यात गणितज्ञ फिबोनासी के किताब की है जिसमे उन्होंने इसपर विस्तार से चर्चा किये है।
इन्होंने महर्षि ब्रह्मगुप्त जी के सिद्धांत पर बहुत काम किया ।
लिंक :

https://en.m.wikipedia.org/wiki/Brahmagupta%E2%80%93Fibonacci_identity

अभी मेंचेस्टर युनिवर्सिटी के अध्यक्ष ये स्वीकार किया असल में कैलकुलस भारतीय गणित की देन है।

यहा देखे:

https://www.manchester.ac.uk/discover/news/indians-predated-newton-discovery-by-250-years/

 
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Posted by on January 17, 2023 in Uncategorized

 

इतना क्या घबराना, मजाक उड़ाइये ना!

राहुल गांधी के पास खोने को तो ठीक पाने और देने को भी कुछ नहीं है फिर भी युवाओं का हुजूम साथ चल पड़ता है और अगले पड़ाव पर पहुंचते-पहुंचते यह जनसैलाब नजर आने लगता है। जो कांग्रेस बिखरी हुई, सोई हुई नजर आती थी यकायक नींद से जागी लगने लगी है। बुरहानपुर, खंडवा, महू, राऊ, राजवाड़ा से सांवेर, उज्जैन तक यही नजर आया कि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष खरगे भले ही उम्रदराज हों, लेकिन कांग्रेस की धमनियों के साथ आमजन में यह यात्रा ऊर्जा का संचार कर रही है।

राहुल गांधी को पप्पू घोषित कर चुकी भाजपा इस नामकरण को लेकर तो शायद ही आत्ममंथन करे, लेकिन राजवाड़ा की सभा में आधे घंटे के भाषण में न तो वो बहके हुए, खिसके हुए दिखे और न जुमलेबाज, नौटंकीबाज नजर आए। इस बार वे ऐसे नाड़ी वैद्य नजर आ रहे हैं, जो देश की नब्ज पर हाथ रखते ही उसकी बीमारी को पहचान रहा है। वो जिन राज्यों से गुजरते हुए आए हैं, उनकी अपने पहनावे से भी पहचान है, लेकिन राहुल के पहनावे में राज्यवार ऐसा कोई परिवर्तन नजर नहीं आया, वही टी शर्ट-पेंट के साथ विरोधियों के निशाने पर चल रही खिचड़ी दाढ़ी और अनथक यात्रा। जीवन के सारे सुख भोग चुके इंसान के मन में जब पंचक्रोसी या नर्मदा परिक्रमा की हूक उठती है तो वह मोह-माया से मुंह मोड़कर निकल पड़ता है अहं को छोड़ ‘मैं’ को तलाशने के लिए… कुछ ऐसा ही जीवन दर्शन भारत जोड़ने निकले इस राहगीर में नजर आता है। ऐसा क्या चुंबकीय आकर्षण है कि लोग जुड़ते, साथ चलते जा रहे हैं। यह बदलाव उन शहरों में भी नजर आ रहा है, जहां भाजपा सत्ता में है।
कभी पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की अंतिम रैली इंदौर की सड़कों से निकली थी। महू-इंदौर के उन्हीं रास्तों से चलते हुए वो राजवाड़ा पहुंचे तो बीसियों साल पहले जैसा सैलाब उनके साथ भी नजर आया। आमसभा में जो बात कही, वही बारोली में मीडिया से चर्चा में भी दोहराई कि भारत जोड़ो यात्रा इसलिए नहीं है कि इससे कांग्रेस को कोई फायदा मिल जाएगा। वो इसे यात्रा नहीं ऐसी तपस्या कहते हैं, जो फल की कामना को आधार बनाकर नहीं की जाती। उनकी भाषा, भाव भंगिमा में अहं नहीं विनम्रता झलकती है। वो कहते हैं- अभी जो हालात हैं, उसमें देश को सुनने की जरूरत है, सुनाने की नहीं। बहुत जरूरी होने पर ही मोदी का नाम लेते हैं, साथ में कटाक्ष करने से भी नहीं चूकते कि मैंने तो आपके 17 सवालों के जवाब भी दे दिए, लेकिन इन 17 सालों में उनसे किसी की एक सवाल पूछने तक की हिम्मत नहीं हुई, क्योंकि वो सुनने में नहीं… सुनाने में विश्वास रखते हैं। केश फ्लो बंद होने से खुदरा व्यापारियों के सामने गहराते संकट, दम तोड़ते छोटे उद्योगों से बढ़ती चुनौती के साथ सारा पैसा दो-तीन अरबपतियों की ही जेब में जाने की बात करते वक्त वो गलती से भी अंबानी-अडानी का नाम नहीं लेते। चैनलों पर रोज चमकते आक्रामक चेहरों के मुकाबले इस विनम्र चेहरे को नजर अंदाज करना मीडिया घरानों की भले ही मजबूरी बन गई हो, लेकिन बिना किसी पैकेज डील के लोगों में विश्वास बढ़ाती इस यात्रा को कोई कैसे रोक सकता है?
सोशल मीडिया पर प्रश्न तैर रहे हैं कि भारत टूटा कहां है, जो जोड़ने निकले हैं। पाकिस्तान में डर समाया हुआ है, भारतीय राजनीति के महामानव की सोच और कूटनीति का विश्व में डंका बज रहा है। फिर क्या जोड़ने निकले हैं? अब तक की यात्रा और उनके भाषणों से यही आभास हो रहा है कि वे भारत को नहीं, दिलों को जोड़ने के लिए निकले हैं। बूढ़ी हो चुकी कांग्रेस के हांफते-थकते-मजबूरी में दौड़ते नेताओं की फौज साथ नहीं होती… तब भी यह यात्रा ऐसे ही बढ़ती रहती, क्योंकि खुद राहुल एकाधिक बार कह चुके हैं कि वो कांग्रेस और राहुल गांधी वाले आभा मंडल से मुक्त होकर एक आमजन की तरह देश को समझने निकले हैं। भारत को समझने के लिए कभी महात्मा गांधी पैदल चले थे, चंद्रशेखर भी यात्रा पर निकले थे। यह यात्रा राहुल को महात्मा बना देगी, चंद्रशेखर की तरह प्रधानमंत्री बना दे यह संभव नहीं, लेकिन तीन-तीन प्रधानमंत्री वाले परिवार का एक सदस्य हजारों मील पैदल चल रहा है, यही किसी अजूबे से कम नहीं। राजनीति में पप्पू प्रचारित किए जा चुके राहुल गांधी को इस यात्रा से यदि भारत को समझने का कैवल्य ज्ञान प्राप्त हो जाए तो यह उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि होगी। चाय बेचने वाला यदि आमजन के भरोसे को जीतकर प्रधानमंत्री बन सकता है तो देश को समझने के लिए हजारों किलोमीटर की पदयात्रा कर रहे राहुल गांधी की यह हसरत पूरी करने में वैसी ही उदारता यह देश दिखा दे तो क्या हर्ज है! रथयात्री की हसरत तो आज तक पूरी नहीं हुई पदयात्री के लिए आमजन पलक-पावड़े शायद इसलिए भी बिछा रहे हैं कि 5जी की रफ्तार से दौड़ रहे भारत के भारी भरकम नेताओं वाली पार्टियों में कोई एक बंदा तो ऐसा निकला, जो भारत की आत्मा से साक्षात्कार करने अपनी धुल में पैदल चल पड़ा है।

गुजरात, हिमाचल प्रदेश के चुनाव परिणाम भी इस यात्रा से चमत्कारी साबित हो जाएंगे, यह सोच लेना भारी भूल होगी।जूझती रहे कांग्रेस चुनाव मैदान में, गहलोत और पायलट लड़ते रहे राजस्थान के रण में… राहुल तो जो घर फूंके आपनो चले हमारे साथ का भाव लिए निकल पड़े हैं। परिणाम की फिक्र न उन्हें है, ना ही यात्रा में जुड़ते, छूटते लोगों को है। कांग्रेस की नीतियों के प्रचार, भाजपा और उसके नेताओं की गलतियां गिनाने जैसे संक्रामक रोग से वो अपनी यात्रा को बचाते हुए चल रहे हैं… शायद इसलिए भी लोग साथ है कि यह यात्रा कांग्रेस की यात्रा या उन्माद भड़काने वाली अन्य यात्राओं की फोटोकॉपी नहीं है।
यशवंत रोड से सभा मंच की तरफ बढ़ते सैलाब में राहुल को तलाशती नजरों ने ‘डरो मत’ वाली तख्तियों को भी देखा है। मुझे लगता है इस यात्री के दिल से डर, इच्छा, लोभ, ईर्ष्या, अहंकार समाप्त हो चुका है। यह निर्लिप्तता या स्थितप्रज्ञ भाव ही व्यक्ति को ऊंचा उठा सकता है- यही इस यात्रा में नजर आया है। कल तक जिसका मजाक उड़ाना मकसद रहा, वही अब आंखों की नींद उड़ा रहा है, क्योंकि उसने संसद की बजाय सड़क पर लोगों का दर्द साझा करने का रास्ता तलाश लिया है। हो रहे विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी का शामिल होना न होना लोगों के लिए भले ही महत्वपूर्ण नहीं हो, लेकिन भाजपा के सभा मंचों से लोगों को बताया जा रहा है कि राहुल को कांग्रेस की चिंता नहीं है वो भारत जोड़ने निकले हैं।

सितंबर में कन्याकुमारी से शुरू हुई इस यात्रा को मप्र के पहले तक कैसा प्रतिसाद मिला यह तो राहुल जानें, लेकिन यदि वो कहते हैं कि कर्नाटक से ज्यादा केरल में, केरल से ज्यादा महाराष्ट्र और वहां से भी ज्यादा मप्र और इंदौर में प्यार-समर्थन मिला है तो यह बात विरोधियों के कान खड़े करने वाली होना चाहिए कि जिसे वह राजनीति में फेल मान रहे थे, वह पप्पू तो जन अदालत में हर परीक्षा में पास होता जा रहा है। कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी का कम मजाक बनाया था क्या… बीते लोकसभा चुनाव में, क्या रहा नतीजा मोदी मजबूत बनकर उभरे औरभ् ााजपा को भी उबारा। ये यात्रा कांग्रेस का कायाकल्प भले ही नहीं कर पाए, लेकिन आमजन को उसकी शक्ति की याद तो दिला ही रही है।

अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा की सरकार और मोदी के प्रधानमंत्री बनने में यह यात्रा बाधक बनेगी… ऐसे कोई आसार नजर नहीं आते। कांग्रेस कितनी मजबूत होगी… कहा नहीं जा सकता। बहुत संभव है कि कांग्रेस के जहाज में अभी जितने सवार है वो भी उछलकूद में नया ठिकाना तलाश लें। कांग्रेस का झंडा थामने वालों में राहुल अकेले ही रह जाएं, तब? वो मीडिया से कह चुके हैं आरोप-प्रत्यारोप, कांग्रेस की हार-जीत आदि से राहुल तो बहुत आगे निकल गया है- राहुल के साथ कांग्रेस चले ना चले… लग रहा है देश साथ चलने लगा है। वजह साफ है… वो कांग्रेस की नहीं, आमजन की परेशानियों की बात कर रहे हैं, उसे सुन रहे हैं। सरकारें जब लोगों को सुनना बंद कर देती है, तब आपात काल के डंडे से सिंहासन पर चिपके रहने के षड्यंत्र भी नाकाम साबित हो जाते हैं। न्यूज चैनल जब राग जैजैवंती का प्रसारण करने लगते हैं, तब भी टीवी म्यूट और बंद करने का अधिकार तो आम आदमी के पास ही रहता है। सुनने और नहीं सुनने के इसी फर्क को सरल तरीके से समझाने निकले राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस भले ही मजबूत न हो, लेकिन आम आदमी का यह विश्वास तो मजबूत होता नजर आ ही रहा है कि कोई तो है, जो उन्हें सुनने निकला है… इस अंतिम आदमी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसकी टी-शर्ट कितनी महंगी है और जूते कितने हजार के हैं।

 
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Posted by on November 30, 2022 in Uncategorized

 

गोडसे गांधी संवाद

आजकल रामायण संवाद चल रहा इसी परिपेक्ष में
गोडसे गांधी संवाद
(आज के दौर के हिसाब से)

नाथू- मैंने जब पांव छुए थे तब भी आपको अंदाजा नहीं हुआ?

बापू- नाथू मैंने देख लिया था तुम्हारे पास पिस्टल भी है।

नाथू- फिर भी आपने मुझे नजदीक आने दिया?

बापू- मेरा समय पूरा हो चुका था, तुम्हारा समय आने देना देश हित मे नहीं था सो तुम्हें पास आने दिया।

नाथू- मतलब ?

बापू- अगर तुम्हें पकड़वा देता तो तुम माफी मांग लेते और मुझे अपने मूल्यों के कारण तुम्हें माफ करना पड़ता।

नाथू- और मेरे मूल्य ?

बापू- तुम्हारे पास मूल्य थे ही कहाँ?, तुम तो नफ़रत का बीज लेकर आये थे, उस बीज को मैं वृक्ष नहीं बनने देना चाहता था।

नाथू- मेरे मूल्य थे! , मैं गोली मारने के बाद भागा नहीं, वहीं खड़ा रहा।

बापू- वो मूल्य नहीं थे। तुम भागे इसलिए नहीं थे क्योंकि तुम मुझसे बड़ा होना चाहते थे, तुम्हें लगता था मैं हीरो हूँ, असल में तुम भी गांधी हो जाना चाहते थे । तुम चाहते थे वो भीड़ तुम्हें कंधों पर उठा ले।

नाथू- मगर आपने भी तो देश के दो टुकड़े होने दिए।

बापू- वो मैं कभी नहीं चाहता था, मैं बस शांति चाहता था, धर्म के आधार पर दो देशों का प्रस्ताव मेरा नहीं था।

नाथू- परंतु मुझे भी आज देश मे लोग बहुत मानते है

बापू- हाँ सही कह रहे हो , इसलिए आज भी चार लोग इकट्ठा करने के लिए भी तुम्हें मानने वालों को मुझे ही “गाली” देनी पड़ती है।

नाथू- तो मैंने क्या गलत किया? , जब अलग देश ले लिया तो सबको पाकिस्तान चले जाना चाहिए।

बापू- लेकिन अब तो तुम्हे मानने वाले बोल रहे है के अखण्ड भारत बनाना है?
(वो कैसे बनेगा?)

नाथू- तो ठीक तो है।

बापू- अभी जो देश मे 20 करोड़ है उनसे तो इतनी नफरत करते हो, उधर से 14 करोड़ और आ गए तो क्या करोगे?

नाथू- तब अखण्ड भारत तो बन चुका होगा न !

बापू- पर तुम्हें मानने वाले तो कहते है वो तो दुगनी रफ्तार से बच्चे पैदा करेंगे।

नाथू- तब तो उन सबको उधर चले जाना चाहिए।

बापू- फिर तो उनके सब कलाकार , वैज्ञानिक, प्रोफेसर, साहित्यकार, फौजी, फिल्मकार , गीतकार और सब निचले दर्ज़े के कारीगर वो भी सब चले जाएंगे? देश का नुकसान होगा उन कार्यो को कौन करेगा जो वो करते आये है?

नाथू- तो उन सबको हिन्दू बना देंगे

बापू- फिर तो तुम्हारा मुद्दा ही खत्म , फिर लड़ोगे किस से , धर्म की रक्षा किस से करोगे, हिन्दू राष्ट्र किसकी लाशों पर बनाओगे , धर्मों रक्षति रक्षत: का क्या होगा?
फिर तो सबको रोटी रोज़गार देना होगा, क्या वो तुम्हारे लोगो की प्राथमिकता है?

नाथू- नहीं नहीं आप समझे नहीं ??

बापू – क्या सोच रहे हो, इससे आगे का जवाब तो व्हाट्सएप पर भी नहीं आया होगा ।
सुनो…
“किसी का धर्म अंततः उसके और उसके बनाने वाले के बीच का मामला है और किसी का नहीं”

धर्म का सार्वजनिक प्रदर्शन होना ही नहीं चाहिए। धर्म श्रेष्ठता का मसला नहीं है। नेताओं को भी धर्म के सार्वजनिक प्रदर्शन से बचना चाहिए। धर्म के नाम पर जो ये भीड़ देखते हो ये इबादत के लिए इकट्ठी नहीं होती , ये बस ये दिखाना चाहती है के देखो हम संख्या में इतने है। इसी संख्या का उपयोग राजनीति अपने नफे नुकसान के हिसाब से कर लेती है।

अफसोस ये है यही बात न समझना हिंदुओं के अलावा मुसलमानो की भी समस्या है। यह तब भी थी और आज भी है।
मैं उसे धार्मिक कहता हूं जो दूसरों का दर्द समझता है।

नाथू- हम तो बस देश मे एकता अखण्डता और शांति चाहते हैं।

बापू- असल मे एकता अखंडता और शांति का मतलब तो तुम समझते ही नहीं हो, तुम्हारी समस्या मुसलमान नहीं है!

नाथू- तो ?

बापू- तुम्हारी समस्या है साम्प्रदायिकता, जो मूलतः तुम्हारा स्वभाव है।
जब सब मुसलमान यहाँ आ जाएंगे तब भी तुम जाति , धर्म, ऊंच ,नीच के आधार पर वैमनस्य बोओगे और लड़ते रहोगे वही तुम्हारा मूल स्वभाव है। समझ आया?

नाथू- नहीं

बापू- चलो एक कहानी सुनो।
“एक गाँव मे एक औरत अपने 4 बच्चों 2 लड़की 2 लड़के और पति के साथ रहती थी। पति मेहनती था, औरत भी घर के काम करती। परंतु औरत मे “मैं” का भाव था। सो घर के हर अच्छे कार्य का श्रेय उसे मिलता, परंतु कुछ गड़बड़ हो जाने पर वह दोषारोपण करती।
(आज की सरकार की तरह)
पति पत्नी में अक्सर झगड़ा होता । बच्चों को लगने लगा पिता कलह का कारण है। बच्चे बड़े हुए तो पिता गुजर गए। बच्चों को लगा कलह खत्म हुई पिता चले गए।
कुछ दिन ठीक रहा परंतु घर मे कलह जारी रही। बड़ी लड़की से अक्सर उस औरत का झगड़ा होता। बड़ी लड़की का विवाह हो गया।
कुछ दिन शांति से गुजरे अब दूसरी बड़ी लड़की से घर मे कलह शुरू हो गयी। अब कलह की दोषी वो ठहराई गयी। उसका विवाह हुआ और वो भी चली गयी।
अब छोटे लड़के से विवाद होने लगे। छोटे लड़के ने भी घर छोड़ दिया। अब बडा लड़का और वो औरत झगड़ने लगे ।

आज भी उस परिवार को ये समझ नहीं आ रहा कलह की मूल वजह कौन है,
तुम्हें समझ आया ?”

नाथू- नहीं

बापू- जानते हो क्यों नही समझ आया?

नाथू- नहीं

बापू- क्योंकि तुम खुद वजह हो, तुम ये देख ही नहीं पा रहे के सब।सदस्यों से होने वाली कलह में जो एक चीज़ समान है वो है वो औरत और कहीं उसे अपना नजरिया बदलने की जरूरत है, वही हाल तुम्हारा भी है , तुम और तुम्हें मानने वाले मूल स्वभाव से ही साम्प्रदायिक हो। जब कोई भी नहीं रहेगा तो भी तुम स्वयं पर गर्व करके अपने इतिहास और अपने आप से लड़ने लगोगे।’

नाथू- जो भी हो अब मेरी भी मूर्ति बनने लगी है, और मंदिर भी।

बापू- तब भी तुम्हें ये जानकर बहुत अफसोस होगा के मेरा नाम वहाँ भी तुमसे पहले आएगा।

नाथू- ऐसा क्यों?

बापू- क्योंकि मंदिर या मूर्ति के सामने लगे शिलालेख पर ये तो लिखना ही पडेगा के तुमने कौन सा “महान कार्य” किया था।

नाथू- अरर्र…..अरे बापू !!!!!!😰😰

नाथू- हाँ नाथू, इसीलिए मुझे बापू कहा ही जाता है।

#GandhiJayanti #GandhiReturns

 
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Posted by on October 2, 2022 in Uncategorized

 

मन की बात…?

जब अच्छे दिन आएंगे
सांसदों के गोद लिए गांव
विकास की ओर सरपट दौड़ते जाएंगे
2 करोड़ युवा स्किल इंडिया कार्यक्रम से स्किल ले
रोजगार पाकर मेक इन इंडिया को सफल बनायेंगे
बुलेट ट्रेन में बैठ हम
स्वच्छ भारत के स्वच्छ नमामि गंगे के दर्शन को जायेंगे
न बेरोजगारी की मार, न महंगाई से रार
पेट्रोल, गैस मिलेंगे कौड़ियों के भाव

परंतु! तब तक के लिए…
राष्ट्रवाद की रक्षा को हिन्दू-मुस्लिम कट मरे
टी वी एंकर सत्ता की दलाली के नित नये कीर्तिमान गढ़ रहे
महंगाई बढ़ रही, रुपया लुढ़क रहा
नकली आंकड़ों के सहारे देश प्रगति पथ पर बढ़ रहा
गरीब मर रहा, चीते और भक्तों का कुनबा रोज बढ़ रहा
रेहड़ी पर मौजूद चाइनीज सामानों का विरोध कर
चीनी कंपनियों के सहारे देश प्रगति पथ पर बढ़ रहा
देश नहीं बिकने दूंगा की टेर लगाने वाला
रेल, बैंक, डाकघर सहित सारे संसाधनों को बेच रहा
क्योंकि! नोटबंदी, एफ डी आई, जी एस टी झांकी है
जजिया जैसा टैक्स लगाना तो अभी बाकी है

और हम!
मन की बात सुन-सुन कर अमृत महोत्सव मनाएंगे
थाली खिसकने का गम नही, पर बॉलीवुड को सबक सिखाएंगे
नेपाल भले हमारी जमीन कब्जा ले,
पर हम तो चीन-पाकिस्तान को टी वी डिबेट के जरिए ही सबक सिखाएंगे
टुकड़ों में बंटते हम, टुकड़ों में ही जीये जायेंगे
रीढ़ की हड्डी तो गल चुकी, नई पीढ़ी को भी अपाहिज बनायेंगे
पार्टी, जाति, धर्म के नाम पर बर्बाद हुए हम मिडिल क्लास
सगर्व अपने हाथों अपनी कब्र खुद ही बनायेंगे
और अपने साथ अपने बच्चों को भी वहीं पर दफनायेंगे

 
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Posted by on September 25, 2022 in Uncategorized